आज हम आपको जो कहानी बताने जा रहे हैं, अफ्रीका मैं काफी प्रचलित है। यह कहानी एक बंदर और कछुए की है।
एक समय की बात है एक बड़े से जंगल में एक शैतान और चालबाज बंदर रहता था, जो अक्सर जानवरों को तंग करता था और उनका मजाक उड़ाया करता था।
एक शाम उसने देखा कि एक कछुआ धीरे-धीरे अपने घर की तरफ जा रहा है। उसको देखते ही बंदर के मन मे शैतानी सूझ गयी। उसने एक योजना बनायी और भागकर कछुए के पास गया।
बंदर ने कहा - "कैसे हो दोस्त? क्या आज तुम्हें पेट-भर खाना मिला?"
कछुए ने निराशा में कहा - "नहीं! आज तो मैं भूख ही रह गया हूँ।"
बंदर ने कछुए से कहा - "वाह! तुम तो मुझे बहुत सही समय पर मिले हो। आज मेरे यहां बहुत बढ़िया खाना बना है। पेट भर खा लेना।"
कछुए को बहुत भूख लगी थी। अतः उसने बंदर की बात मान ली और उसके पीछे-पीछे जाने लगा।
कछुए को चलने में दिक्कत आ रही थी। उसे काफी तेज चलना पड़ रहा था, जिससे उसे शरीर पर जगह-जगह चोटें लग रही थी, लेकिन अच्छे दावत की उम्मीद में वह परेशानी सहता जा रहा था। आखिरकार गिरता-पड़ता वह उस स्थान में पहुंच ही गया जिसे बंदर अपना घर कहता था।
बंदर ने कछुए को देखकर बोला - "हे भगवान! यहाँ पहुंचने के लिए कितना समय लगा दिया। मैंने तो कल के लिए सारा प्रोग्राम स्थगित कर दिया।"
"मुझे बहुत अफसोस है, दोस्त!" कछुए ने हाँपते हुए कहा। "पर मुझे लगता है कि तुम्हे खाना तैयार करने के लिए बहुत समय मिल गया होगा, इसलिए नाराज न हों।"
"हाँ, निश्चित रूप से!" बंदर ने जवाब दिया। "सारा भोजन तैयार है। बस तुम्हें पेड़ पर चढ़ना है, वहां जो बर्तन टंगा है, उसी में सारा भोजन है।"
बेचारा कछुआ अब भूख और प्यास से तरस गया था। उसने ललचाई नज़रों से बर्तन की ओर देखा, जो ऊंची डाली पर लटका हुआ था। कछुए को अच्छे से पता था कि वह उस डाली तक नहीं पहुंच सकता और यह बात बंदर भी जानता है।
कछुए ने बंदर से कहा कि वह बर्तन को नीचे ले आये, जिससे कि दोनों भोजन का आनंद ले सकें।
बंदर पेड़ पर चढ़ा और वहां से चिल्लाया - "ओह, नही! यदि तुम्हें मेरे साथ मिलकर खाना है तो पेड़ पर तो चढ़ना ही होगा।"
कछुआ पेड़ मे चढ़ने में असक्षम था। वह भूखे पेट ही निराशा भरे मन से वापिस घर की तरफ चल पड़ा।
कछुए के मन-ही-मन बंदर पर बहुत गुस्सा आ रहा था, लेकिन किया ही क्या जा सकता है। उसने निश्चिय किया कि वह निर्दयी बंदर को एक-न-एकदिन अवश्य सबक सिखायेगा।
कुछ दिनों के बाद ही कछुए को मौका मिल गया। उसने बंदर को खाने पर अपने घर बुलाया।
बंदर को आश्चर्य तो हुआ पर वह लालच के कारण मान गया कि चलो जाकर देखते हैं कि यह कछुआ उसके लिए क्या तैयार करता है।
तय समय पर बंदर कछुए के घर पहुंच गया।
यह समय भरी गर्मियों का था। झाड़ियों और घास पर जगह-जगह आग लगने के कारण जमीन काली पड़ी हुई थी।
नदी से कुछ दूरी पर काली जमीन के बीच में कछुए का डेरा था। उसने बंदर को देखकर उसका सम्मान-सहित अभिवादन किया।
भोजन के बर्तनों मे से बहुत अच्छी खुशबू आ रही थी। बंदर की भूख सातों-आसमान पर थी।
"दोस्त! तुम्हें यहां देखकर मेरा मन प्रसन्न हो गया। भोजन बिल्कुल तैयार है। बस तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था। लेकिन तुम्हारे हाथ तो बहुत गन्दे हैं, क्या तुम्हारी माँ ने यह नहीं सिखाया कि भोजन से पहले हाथ धोने चाहिए। देखो हाथ कितने गंदे हो रहे हैं।"
बंदर ने अपनी हथेली देखी जो कि जली हुई घास और झाड़ियाँ पार करके आने के कारण काली पड़ गयी थी।
"जाओ! जाकर नदी मे हाथ धोकर आओ। मैं तब तक खाना परोसता हूँ।" कछुए ने कहा।
बंदर भाग कर नदी तक पहुंचा और अच्छी तरह हाथ धोये। लेकिन वह जब कछुए के पास वापिस पहुंचा तो उसके हाथ दुबारा पहले जैसे काले और गंदे थे।
"इस तरह तो तुम्हें खाना नहीं मिलेगा। हाथ धुले होने पर ही तुम्हें खाना मिलेगा। भाग कर जाओ और दुबारा हाथ धोकर आओ। जल्दी से जल्दी वापिस आने का प्रयास करो क्योंकि मुझे भूख लग रही है और मैं खाना शुरू कर रहा हूँ।" - कछुए ने कहा।
बेचारा बंदर नदी तक भागा लेकिन वापिस आने पर उसके हाथ पहले जैसे थे। गंदे हाथ होने के कारण कछूए ने उसे खाना देने से इंकार कर दिया।
खाना तेजी से खत्म हो रहा था। बंदर हड़बड़ाकर दुबारा नदी तक गया। हाथ धोकर आया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
जैसे कछुए ने आखिरी निवाला निगल लिया, बंदर को समझ आ गया कि अब खाना खत्म हो गया। बंदर समझ गया था कि वह कछुए की चालबाजी में फस गया है, कछुए ने भी उसके साथ वही किया जो कुछ दिनों पहले बंदर ने किया था। यह दावत ओर कुछ नहीं बल्कि कछुए का बदला था।
बंदर मुँह लटका कर भूखे पेट ही निराश मन से घर की तरफ चल दिया।
प्यारे दोस्तों! "हमें दूसरों के साथ वही व्यवहार करना चाहिए जो हम अपने लिए पसंद करते हो। दूसरों के साथ वह व्यवहार ना करें जो आप खुद के लिए पसंद नहीं करते हो।"
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हम जल्द ही आपसे अगली कहानी के साथ मिलेंगे। तब तक अपना ध्यान रखिए और खुश रहें।
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एक समय की बात है एक बड़े से जंगल में एक शैतान और चालबाज बंदर रहता था, जो अक्सर जानवरों को तंग करता था और उनका मजाक उड़ाया करता था।
एक शाम उसने देखा कि एक कछुआ धीरे-धीरे अपने घर की तरफ जा रहा है। उसको देखते ही बंदर के मन मे शैतानी सूझ गयी। उसने एक योजना बनायी और भागकर कछुए के पास गया।
बंदर ने कहा - "कैसे हो दोस्त? क्या आज तुम्हें पेट-भर खाना मिला?"
कछुए ने निराशा में कहा - "नहीं! आज तो मैं भूख ही रह गया हूँ।"
बंदर ने कछुए से कहा - "वाह! तुम तो मुझे बहुत सही समय पर मिले हो। आज मेरे यहां बहुत बढ़िया खाना बना है। पेट भर खा लेना।"
कछुए को बहुत भूख लगी थी। अतः उसने बंदर की बात मान ली और उसके पीछे-पीछे जाने लगा।
कछुए को चलने में दिक्कत आ रही थी। उसे काफी तेज चलना पड़ रहा था, जिससे उसे शरीर पर जगह-जगह चोटें लग रही थी, लेकिन अच्छे दावत की उम्मीद में वह परेशानी सहता जा रहा था। आखिरकार गिरता-पड़ता वह उस स्थान में पहुंच ही गया जिसे बंदर अपना घर कहता था।
बंदर ने कछुए को देखकर बोला - "हे भगवान! यहाँ पहुंचने के लिए कितना समय लगा दिया। मैंने तो कल के लिए सारा प्रोग्राम स्थगित कर दिया।"
"मुझे बहुत अफसोस है, दोस्त!" कछुए ने हाँपते हुए कहा। "पर मुझे लगता है कि तुम्हे खाना तैयार करने के लिए बहुत समय मिल गया होगा, इसलिए नाराज न हों।"
"हाँ, निश्चित रूप से!" बंदर ने जवाब दिया। "सारा भोजन तैयार है। बस तुम्हें पेड़ पर चढ़ना है, वहां जो बर्तन टंगा है, उसी में सारा भोजन है।"
बेचारा कछुआ अब भूख और प्यास से तरस गया था। उसने ललचाई नज़रों से बर्तन की ओर देखा, जो ऊंची डाली पर लटका हुआ था। कछुए को अच्छे से पता था कि वह उस डाली तक नहीं पहुंच सकता और यह बात बंदर भी जानता है।
कछुए ने बंदर से कहा कि वह बर्तन को नीचे ले आये, जिससे कि दोनों भोजन का आनंद ले सकें।
बंदर पेड़ पर चढ़ा और वहां से चिल्लाया - "ओह, नही! यदि तुम्हें मेरे साथ मिलकर खाना है तो पेड़ पर तो चढ़ना ही होगा।"
कछुआ पेड़ मे चढ़ने में असक्षम था। वह भूखे पेट ही निराशा भरे मन से वापिस घर की तरफ चल पड़ा।
कछुए के मन-ही-मन बंदर पर बहुत गुस्सा आ रहा था, लेकिन किया ही क्या जा सकता है। उसने निश्चिय किया कि वह निर्दयी बंदर को एक-न-एकदिन अवश्य सबक सिखायेगा।
कुछ दिनों के बाद ही कछुए को मौका मिल गया। उसने बंदर को खाने पर अपने घर बुलाया।
बंदर को आश्चर्य तो हुआ पर वह लालच के कारण मान गया कि चलो जाकर देखते हैं कि यह कछुआ उसके लिए क्या तैयार करता है।
तय समय पर बंदर कछुए के घर पहुंच गया।
यह समय भरी गर्मियों का था। झाड़ियों और घास पर जगह-जगह आग लगने के कारण जमीन काली पड़ी हुई थी।
नदी से कुछ दूरी पर काली जमीन के बीच में कछुए का डेरा था। उसने बंदर को देखकर उसका सम्मान-सहित अभिवादन किया।
भोजन के बर्तनों मे से बहुत अच्छी खुशबू आ रही थी। बंदर की भूख सातों-आसमान पर थी।
"दोस्त! तुम्हें यहां देखकर मेरा मन प्रसन्न हो गया। भोजन बिल्कुल तैयार है। बस तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था। लेकिन तुम्हारे हाथ तो बहुत गन्दे हैं, क्या तुम्हारी माँ ने यह नहीं सिखाया कि भोजन से पहले हाथ धोने चाहिए। देखो हाथ कितने गंदे हो रहे हैं।"
बंदर ने अपनी हथेली देखी जो कि जली हुई घास और झाड़ियाँ पार करके आने के कारण काली पड़ गयी थी।
"जाओ! जाकर नदी मे हाथ धोकर आओ। मैं तब तक खाना परोसता हूँ।" कछुए ने कहा।
बंदर भाग कर नदी तक पहुंचा और अच्छी तरह हाथ धोये। लेकिन वह जब कछुए के पास वापिस पहुंचा तो उसके हाथ दुबारा पहले जैसे काले और गंदे थे।
"इस तरह तो तुम्हें खाना नहीं मिलेगा। हाथ धुले होने पर ही तुम्हें खाना मिलेगा। भाग कर जाओ और दुबारा हाथ धोकर आओ। जल्दी से जल्दी वापिस आने का प्रयास करो क्योंकि मुझे भूख लग रही है और मैं खाना शुरू कर रहा हूँ।" - कछुए ने कहा।
बेचारा बंदर नदी तक भागा लेकिन वापिस आने पर उसके हाथ पहले जैसे थे। गंदे हाथ होने के कारण कछूए ने उसे खाना देने से इंकार कर दिया।
खाना तेजी से खत्म हो रहा था। बंदर हड़बड़ाकर दुबारा नदी तक गया। हाथ धोकर आया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
जैसे कछुए ने आखिरी निवाला निगल लिया, बंदर को समझ आ गया कि अब खाना खत्म हो गया। बंदर समझ गया था कि वह कछुए की चालबाजी में फस गया है, कछुए ने भी उसके साथ वही किया जो कुछ दिनों पहले बंदर ने किया था। यह दावत ओर कुछ नहीं बल्कि कछुए का बदला था।
बंदर मुँह लटका कर भूखे पेट ही निराश मन से घर की तरफ चल दिया।
शिक्षा -
प्यारे दोस्तों! "हमें दूसरों के साथ वही व्यवहार करना चाहिए जो हम अपने लिए पसंद करते हो। दूसरों के साथ वह व्यवहार ना करें जो आप खुद के लिए पसंद नहीं करते हो।"
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