आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की ।
गले में बैजन्तीमाला, बजावैं मुरलि मधुर बाला ॥
श्रवण में कुंडल झलकाता, नंद के आनंद नन्दलाला । आरती...।
गगन सम अंगकान्ति काली, राधिका चमक रही आली ।
लतन में ठाढ़े बनमाली, भ्रमर-सी अलक,
कस्तूरी तिलक, चंद्र-सी झलक, ललित छबि श्यामा प्यारी की।
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की...।। आरती...।
कनकमय मोर मुकुट बिलसै, देवता दरसन को तरसैं ।
गगन सों सुमन रासि बरसै, बजे मुरचंग, मधुर मिरदंग,
ग्वालिन संग, अतुल रति गोप कुमारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की…।। आरती...।
जहां से प्रगट भई गंगा, कलुष कलिहारिणी गंगा ।
स्मरण से होत मोह-भंगा, बसी शिव शीश, जटा के बीच ।
हरै अघ-कीच, चरण छवि श्री बनवारी की ।
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की…।। आरती...।
चमकती उज्ज्वल तट रेनू, बज रही बृंदावन बेनू ।
चहुं दिशि गोपी ग्वालधेनु, हंसत मृदु मन्द, चांदनी चंद ।
कटत भव फन्द, टेर सुनु दीन दुखारी की ।
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की…।। आरती...।
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